Wednesday, February 14, 2018

Does nobody actually like grief?

The underlying belief that nobody likes grief is not a fact, I think. There are pessimists and sadists who see negativity and enjoy sadness. Commonsense says that people don't enjoy sadness, but the reality lies beneath the commonsense experience if "common-sense" is taken to be the "layman's sense." A person of emotions equally enjoys both the experiences, the experience of gladness and of sadness. Indian theory of taste (rasa siddhānta) recognises "karuṇa-rasa" (taste of tragedy) along with other rasas, also in all kinds of literature and cinema we have tragedy as we have comedy and others. The point, here, to take note of is that only those who are "persons of emotions" are considered common oft-times. But, there are commoners who have the least sense of emotions; they are to be regarded as commoners too for though they lack in usual sense of emotion nonetheless they possess commonsense intelligence.

Sunday, September 3, 2017

What does it mean to be Human?

Human beings have rationality as well as emotions. But, sometimes we figure our humanness only in terms of humane characteristics and forget rationality all the way. We surmise and appeal to emotion. Is it what is meant to be human?
Being of human has two functions: to attach and to detach. One function is performed by the emotive agent and other by the intelligent agent. One can ask, are the emotive and intelligent agents two distinct agents? The experience what we have ourselves can be either of many agents or of only one and the same agent. It depends on how we have had the experience of ourselves. That consciousness can be multiplied is not new thinking, it has a long tradition of thought. But, like a normal person, we are used to of experiencing ourselves as a single agent. Because of this everydayness, we preferably choose either to be an emotive agent or to be an intelligent agent. This choice can be made consciously or unconsciously.
The consequence of this choice is what I want you to ponder over. If we chose both, we face a constant conflict between them. If we chose the emotive, or intelligent, agent then we downsize the other to the negligence. These situations, of the conflict or of the negligence of the other, arise because both the agents head towards different paths. This continues because we never try to make them accommodative. We need a super-agent who can watchdog these two opposite heading faculties of human beings and who could lead us to a harmonious middle path. This super-agent is the one who can be accredited the being of the human person. Here, I did not say that there is such a super-agent. All that I want to state is that we can assign functions of witnessing and willing to our consciousness as well. 

Saturday, September 2, 2017

God exposed

Mankind has supposed a superior being, i.e. God, than themselves to praise themselves superior to other beings. As if, the cosmos is hierarchical, there is an unseen being above us and only that being is above us; all other beings stand below the human beings in the hierarchy. The being above us has created us for his muse, delegated us his authority to muse over other degraded beings.

Friday, April 29, 2016

रचनाशीलता से अकेलेपन की निवृत्ति

  मनुष्य अकेला नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य ने जो रचनाएँ की हैं वह "अकेला-मनुष्य" नहीं कर सकता है। नदी पर बने एक पुल को देखें तो स्पष्ट कह सकते हैं कि मनुष्य जो अकेला हो वह यह रचना नहीं कर पाएगा। अस्तित्व की समस्या से जूझने वाला [अस्तित्ववादी] मनुष्य अकेला हो सकता है, लेकिन रचना में लगा मनुष्य अकेला नहीं जान पड़ता। तब, अकेलापन कहीं रचनाहीनता की स्थिति तो नहीं ?

प्रत्येक मनुष्य का अस्तित्व तो अकेला है, लेकिन वह रचना करने के लिए साथ आता है। तो, उसका अकेलापन प्रामाणिक(authentic) है या उसकी रचनाशीलता? कैसे मनुष्य अपने एकाकी अस्तित्व से बाहर आकर अन्य (others) से जुड़ता है?... कहीं उसका अस्तित्व ही इसकी अनुमति तो नहीं देता? "मनुष्य-अस्तित्व" के दरवाज़े जगत की ओर खुलते हैं। शरीर उसके और जगत के बीच का माध्यम है। इस माध्यम से जगत मनुष्य के लिए खुलता है। लेकिन, इस माध्यम को यदि उपयोग में ही न लाया जाय तो मनुष्य ख़ुद में बन्द हो जाता है। तो क्या यही अकेलापन है? 
लेकिन जब किसी अन्य से अवगत ही न होंगे तो अकेलेपन का एहसास भी कहाँ होगा! मनुष्य को अन्य की अवगति तो है, लेकिन वह जिससे अवगत है उससे जुड़ाव नहीं महसूस कर रहा; यह स्थिति सम्भवतः अकेलापन है। एेसी स्थिति इसलिए आती है क्योंकि जो माध्यम है वह ऐसा है कि अवगत तो वह सहज कराता है। अवगति में कोई कठिनाई नहीं आती, क्योंकि अस्तित्व की ऐकिकता अक्षुण्ण (intact) रहती है। जुड़ाव कठिन है, जुड़ाव ऐकिकता को छूता है, उसे क्षत करता है। जुड़ाव ऐकिकता को खंडित ही कर दे, यदि वह सीधे (direct) हो। इसलिए, जुड़ने से मनुष्य-अस्तित्व को भय है। साथ ही, न जुड़ने से अकेलापन सताता है। तो, व्यवस्था कुछ इस तरह की है कि दोनों स्थिति से निकल सकें। मनुष्य जुड़ता है लेकिन सीधे नहीं, बल्कि रचनाओं में। अस्तित्व में न जुड़ कर, मनुष्य वहाँ जुड़ता है जहाँ वह ऐसा बिना किसी कठिनाई के कर सकता है और अस्तित्व को जिसके लिए अनुमति देने में कोई बाधा नहीं है। मनुष्य जो रचता है उसके सहारे वह अन्य तक आसानी से पहुँच सकता है, और अन्य उस तक। क्योंकि रचना सभी के लिए समान रूप से खुली होती है। अपनी रचना को दूसरे से साझा करते हुए मनुष्य जुड़ता है और जुड़ कर साझी रचनाएँ भी करता है। भाषा, धर्म, ईश्वर, संविधान, क़ानून, दर्शन, कला, विज्ञान इत्यादि सभी को इस रूप में समझ सकते हैं। मनुष्य जहाँ भी, जिससे भी जुड़ा है, उसकी रचनाओं ने उसे जोड़ा है। अस्तु, मनुष्य की रचनाएँ यह निर्धारित करती हैं कि उसका जुड़ाव किससे होगा। तो क्या मनुष्य को जिससे जुड़ना हो उसके अनुरूप रचना नहीं करना चाहिए...!

Monday, September 29, 2014

कल्पना और वास्तविकता का सातत्य

काल्पनिक और वास्तविक का भेद जिसके लिए शून्य हो जाता है उसको मैं दार्शनिक के रूप में पहचानता हूँ । वैसे दार्शनिक तो वास्तविक के दर्शन की आकांक्षा रखता है, लेकिन जब बात दर्शन की ही हो तो काल्पनिक का दर्शन भी वास्तविक की ही भाँति होता है । पिकासो ने जब कहा कि जो भी हम कल्पना कर सकते हैं वह सब वास्तविक है, तो उसने दार्शनिक की बोली बोला था । एक कलाकार से दार्शनिक की बोली सुनना आश्चर्यजनक नहीं है । कला का जब परिपाक होता है तो कला कल्पना को वास्तविकता में उतार देती है, या यूँ कहें कि कल्पना को वास्तविक कर देने में ही कला का परिपाक है ।  
        अभिनेता के लिए जगत एक रंगमंच हो जाता है । दर्शक तब पूरी तरह से देखता है जब वो अभिनेता से स्वयं को जोड़ लेता है, न सिर्फ़ जोड़ लेता है बल्कि अभिनेता ही बन जाता है, अभिनेता की जगह जब स्वयं को रख लेता है । तो मैं कहूँगा कि दर्शन करने के लिए अभिनय करना--किरदार निभाना आवश्यक है । यदि कोई कहे, कोई कैसे रंगमंच के कई किरदार--पात्र एक साथ बन सकता है? तो मैं स्मरण दिलाना चाहूँगा कि हर कोई हर समय ऐसा कर ही रहा होता है,--भले ही वह इसके बारे में सचेत न हो । स्वप्न में तो हम स्पष्टत: स्वयं ही कई भूमिकाएँ अदा कर लेते हैं । 
       अभिनेता जब जिस पात्र की भूमिका निभा रहा हो तब यदि अभिनेता में वह पात्र ही शेष रह गया हो, यानि कि   अभिनेता अभिनेता न रह गया हो, पात्र ही बन गया हो तो यह अभिनय की पूर्णता है । वहीं दर्शक को पूर्ण दर्शन के लिए अभिनय करना और अभिनय करने के लिए पात्र--किरदार बन जाना होता है । किरदार के काल्पनिक, ऐतिहासिक या वास्तविक होने से कोई अन्तर नहीं आता । अभिनय यदि पूर्ण है तो वास्तविक हो जाता है । दार्शनिक वही पूरी तरह देखने वाला दर्शक है जो अभिनय किए बिना अभिनय करता है और इतना पूर्ण अभिनय करता है कि पात्र--किरदार ही बन जाता है और उसका किरदार वास्तविक हो जाता है, वह किरदार को ख़ुद में उतार लेता है, कल्पना को वास्तविक धरातल पर ला देता है । तब कल्पित-चरित्र भी वास्तविक चरित्र बन जाता है । इसीलिए दार्शनिक के लिए काल्पनिक और वास्तविक का भेद शून्य हो जाता है । 

Wednesday, February 5, 2014

धर्म, विज्ञान और दर्शन के जुड़ाव तथा जोड़-तोड़


        धर्मों की शुरुआत बड़ी बचकानी दृष्टि रखते हैं; धर्म चीजों को टुकडों में पाते हैं, और उनको एक साथ जोड़ते हैं; इस जोड़ने के प्रयास में धर्म प्रशंसा पाते हैं | धर्मों की पहचान ही जोड़ने की विशेषता से होती है । सभी टुकड़ों को एक मूल से जोड़ देने पर सभी टुकड़े भी आपस में संबंधित हो जाते हैं और ऐसा करने में धर्म सराहे जाते हैं । लेकिन, धर्मों का हठ इस बात को अनदेखा कर देता है कि जुड़े तो टुकड़े ही हैं, प्रथम उपलब्धि तो टुकड़ों की ही हुई; इन टुकड़ों को जब वह महत्वहीन करने को उद्यत होते हैं तो उनकी दृष्टि अंधे की दृष्टि के समान हो जाती है, वह अंधविश्वासी हो जाते हैं।
        विज्ञान की शुरुआत एक व्यापक दृष्टि में होती है और वह अपनी दृष्टि को सूक्ष्म करने में लगा रहता है। उसको एक जुड़ाव की उपलब्धि पहले होती है, फिर वह टुकड़े करता है, और पुनः जोड़ने का प्रयास करता है। जिन टुकड़ो में विज्ञान जुड़ाव नहीं देख पाता उनको वो अलग-अलग कर देता है। विज्ञान उत्तरोत्तर इस जुड़ाव को देखने में अक्षम होता जाता है, जितनी सूक्ष्मता से देखता है उतने ही असम्बद्ध टुकड़े मिलते हैं। विज्ञान अन्ततः इस बात को अनदेखा करके कि उसको जो पहले उपलब्ध हुआ था वह जुड़ा हुआ था, यह मान लेता है कि टुकड़े मौलिक हैं, ये खुद में कोई सम्बन्ध नहीं रखते , इनको अपनी सुविधानुसार सम्बन्धित किया जा सकता है। वैज्ञानिक उस प्रथमतः उपलब्ध स्वरुप को दृष्टि में नहीं रखता, जिस रूप में टुकड़ों को जोड़ना था। वह जब पुनः यथावत जोड़ पाने में अक्षम होता है, तो अपने किसी अन्यथा जोड़ को अपनी भूल ना बताकर यह कहता है कि इस तरह भी जोड़ा जा सकता है, यह एक आविष्कार है। वस्तुतः, विज्ञान का तोड़कर जोड़ने का तरीका हर जगह ग्रंथि (गांठ) बना रहा है। ये ग्रंथियां वो जुड़ाव नहीं हैं जो प्रथमतः उपलब्ध हुई थीं। लेकिन किसको पड़ी है उन प्रथमतः उपलब्ध जुड़ाव की ! वो जुड़ाव जिसने आश्चर्य में डाला था; वो जुड़ाव जिस पर दृष्टि गहन करने चले थे; वो कभी विज्ञान की दृष्टि में आ ही न सका, उसने तो अपने दृष्टि को सूक्ष्म करते हुए व्यापकता को खो दिया, और फिर जब पाने की कोशिश की तो पा न सका, पाया तो क्या? एक सतही, कृत्रिम व्यापकता।
         धर्मों को जो प्रथमतः उपलब्ध हुआ वह उनको सूक्ष्म दिखा, सीमित, अधूरा , अपर्याप्त दिखा, असम्बद्ध दिखा ; ऐसी दृष्टि में विश्वास निराश करता; तो धर्मों की सारी चेष्टा स्थूल, असीमित, पूर्ण व पर्याप्त की उपलब्धि का है। धर्म असम्बद्धता की अस्वीकृति हैं, धर्म सम्बन्ध बनाने के हठी हैं। जबकि,  विज्ञान को जो प्रथमतः उपलब्ध हुआ वह उसको स्थूल दिखा, असीमित , पूरा , पर्याप्त दिखा, सम्बन्धित (जुड़ा हुआ) दिखा ; जिससे उत्सुकता हुई कि ...ऐसा कैसे है? तो विज्ञान की सारी चेष्टा यह स्पष्ट करने की है कि जो स्थूल, असीमित, पूर्ण, पर्याप्त रूप में उपलब्ध है, सम्बन्धित है, ...वह कैसे सम्भव है? धर्म जुड़ाव में विश्वास रखता है और विज्ञान जुड़ाव पर आश्चर्य करता है। यह आश्चर्य इसलिए क्योकि विज्ञान असम्बद्धता में प्रच्छन्न विश्वास रखता है तो जुड़ाव को देख कर, सम्बन्ध को देखकर उसका आश्चर्य करना स्वाभाविक ही है।
         धर्म और विज्ञान दोनों कुछ करने को उद्यत हैं , कर्ता-वृत्ति रखते हैं ; धर्म भक्ति करना चाहते हैं और विज्ञान जानना चाहता है, ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। धर्म निवृत्ति करने को आतुर हैं तो विज्ञान प्रवृत्ति। करना दोनों को है कुछ न कुछ । इनकी प्रथमतः उपलब्धियों और समस्त कृत्यों की जो साक्षी रहे वो दृष्टि है दर्शन । दर्शन केवल द्रष्टा-वृत्ति है। वह विज्ञान का जिज्ञासित आश्चर्य देखता है और उसके आश्चर्य के पीछे का निहित विश्वास भी। वह धर्म की आशा और हठ को देखता है और उसके सम्बंध में विश्वास को भी।  दर्शन के समक्ष ये सभी उपस्थित है, दर्शन इनका साक्षी है, द्रष्टा मात्र है। दर्शन को दृष्टिगत है कि जुड़ाव दिखे तो तोड़ा जा रहा है, टूटा दिखा तो जोड़ा जा रहा है, यह भी कि... ऐसा क्यों है? क्यों धर्मों को टुकड़े और विज्ञान को जुड़े हुए दिखते हैं तथा क्यों धर्म  टुकड़ों में जुड़ाव करते हैं और विज्ञान क्यों जोड़ों को तोड़ता है? ... दर्शन  इनके सभी निर्णयों को देखता मात्र है , अवगत मात्र रहता है इनसे; इन पर अपना कोई निर्णय तक नहीं लेता । फ़लसफ़ा (फिलोसोफी) में निर्णय लिए जाते हैं, लेकिन उसमें भी लिए गये निर्णयों में आत्यन्तिकता नहीं । फ़लसफ़ा समग्रता में लिया गया निर्णय है, लेकिन दर्शन निर्णय के समग्र हो सकने को ही इनकार करता है; अवगति ही मात्र समग्र हो सकती है। समग्र का साक्षात्-मात्र दर्शन है। निर्णय लेना वैज्ञानिक क्रिया है; जब निर्णय लिया जाता है तो सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, और सम्बन्ध स्थापित करने के लिए पहले असम्बन्धित रूप में स्वीकारना पड़ता है; असम्बन्धित होने का निहित विश्वास रखना वैज्ञानिक दृष्टि है। इसीलिए , विज्ञान और
फ़लसफ़ा समत्व रखते हैं ; दोनों मानते हैं कि जोड़ना है, पहले से जुड़ाव नहीं है । वहीं दूसरी ओर, दर्शन और धर्म दोनों पूर्व-जुड़ाव के हिमायती हैं । धर्म टुकड़े में आस्था रखने को बिल्कुल तैयार नहीं होंगे, धर्म केवल समग्र में आस्थावान हैं; धर्मों के लिए समस्त एक साथ है, समूचा सम्‍बद्ध है । और जब सम्‍बद्ध है ही तो सम्‍बन्‍धित करने की कोई ज़रूरत ही नहीं, ज़रूरत है तो केवल उस समग्र की अवगति की । इसलिए, धर्म और दर्शन समत्व रखते हैं, दोनों को समग्र का साक्षात्-मात्र अपेक्षित है । धर्म समग्र का साक्षात्कार कराते हैं और दर्शन के साक्षी-भाव में समग्र उपलब्ध होता है । दर्शन का धर्मों से समत्व है लेकिन दर्शन-धर्म-एकत्व है । जो बहुतायत तथाकथित धर्म हैं वे तो धर्म के आडम्बर हैं, धर्म नहीं । जिन्होंने धर्म को मौलिक अर्थ में नहीं लिया उन्होंने आडम्बर किये हैं धर्मों के ।
          जो धर्म जोड़ने की बात करे समझ लेना कि वो थोथा धर्म है । वास्तविक धर्म तो केवल वो है जिसमें कुछ जोड़ना नहीं है , सब पहले से ही जुड़ा हुआ है । धर्म की स्थापना नहीं की जाती, वह तो स्थापित है ही । तो जो भी धर्म स्थापित किया गया है उनमें से कोई भी वास्तविक अर्थ में धर्म है ही नहीं । धर्म की जब भी स्थापना की गयी उसने सदा तोड़ने का काम किया है । धर्म की स्थापना की जाती है जोड़ने को, पर जोड़ना किसको? ... जोड़ने के लिए तो कुछ था ही नहीं, सब जुड़ा ही हुआ था; लेकिन, धर्म भी स्थापित करना था, तो एक ही तरीका रहा कि तोड़ो, फिर जोड़ो । ये तोड़ने का काम ही अभी तक धर्मों ने किया है , जोड़ा नहीं है कुछ , जो जुड़ा था उसको तोड़ा है । धर्म कभी जोड़ता नहीं ; क्या जोड़े?.. कुछ है ही नहीं जोड़ने को । जोड़ने वाला कुछ भी धर्म नहीं है, जो जुड़ा है ही वो धर्म है । और जो जुड़ा ही है वह है स्वभाव, मौलिकता, प्रकृति -- अपनी निर्मलता में, अपने निर्विकार रूप में । तो हर स्वाभाविक जीवन जीने वाले को मैं धार्मिक कहूँगा ।
          धार्मिकता आस्तिकता है । वही आस्तिक है जो 'अस्ति' है, यानी कि जो 'है' है । यह 'है' ही धर्म है । अस्ति और आस्था बेमेल बातें है। ऐसा नहीं है कि 'अस्ति' में आस्था जगाना हो, पनपाना हो, पैदा करना हो । एक है कोई अस्ति, कोई भगवान; और दूसरा अनस्ति, मनुष्य , जिसमें अस्ति के प्रति आस्था जगाई जानी हो । और ये बताना कि अनस्ति में अस्ति की आस्था से अनस्ति अस्ति हो जाता है बिल्कुल असंभव सी बात बोलना है ; जो नहीं है वो कैसे हो सकता है! ... मैं यह नहीं कह रहा  कि 'अस्ति' नहीं है, ऐसा तो कहा ही नही जा सकता । मेरा कहना तो बस इतना है कि आस्था  कभी स्वस्थ नहीं हो सकती । धर्म स्वस्थ है, अस्थ नहीं । आस्था शब्‍द बना ही है  'अस्थ' से । आस्थावान होने का मतलब ही हुआ स्वस्थ न होना । स्वस्थ का आस्था से कोई सरोकार नहीं, वह तो अलमस्त है । कभी भी स्वस्थ आस्थावान नहीं होता; अस्वस्थ, रुग्ण, अस्थ ही आस्थावान होता है और जितने भी धर्म आस्था से अनुप्राणित हैं सब के सब धर्म अस्वस्थों के हैं ।

Friday, July 5, 2013

भूत और भविष्य से मानव जीवन की अर्थवत्ता

एक मित्र मेरे साथ राजनीति विज्ञान के अध्येता थे। थे तो वे राजनीति विज्ञान के अध्येता परन्तु दार्शनिक कहूँगा उन्हें। बड़े प्रसन्नचित्त व्यक्ति हैं। एक बार यूं ही बातों बातों में मैंने उनकी ख़ुशी का भेद जानना चाहा। तो उनका सुझाव मिला "आदमी को कल और कल में नहीं जीना चाहिए "। मतलब समझना आसान था कि बीते कल को बिसार के और आने वाले कल से बेसुध हो के जिओ ।
बात तो बड़ी मतलब की है.....ठीक ही कहते हो। सभी उलझनें तो इनके विचार की ही देन लगती हैं। कोई भी राजी हो जाए इस बात से। सभी संत, सभी ज्ञानी, सभी बुद्ध ...सभी यही तो समझाये जा रहे हैं: वर्तमान में जिओ।

लेकिन, मैं राजी हो जाता, इतनी सरलता से, यह  मेरे स्वभाव में नहीं  था। मैंने उनकी  उस मान्यता के प्रति कटिबद्धता को परख लेना जरुरी समझा। मैंने उनकी बात को ठीक उलट कर कहा "मनुष्य को कल और कल में ही जीना चाहिए"। लेकिन अब बात खुशहाली  की नहीं रह गयी थी। उनका सुझाव खुशहाल जीवन जीने के लिए था। मैंने बात को अन्यत्र ही उन्मुख कर दिया। बात अब 'अर्थपूर्ण' जीवन की हो चली थी । मेरा कहना था कि मनुष्यों को छोड़ बाकी जीवों का विचार  करें तो हम पाते हैं की सभी वर्तमान में ही तो जी रहे है। सब तत्क्षण में मस्त हैं। मगर क्या इनके जीवन का कोई मतलब है ? क्या हम भी इनकी तरह बेमतलब ही जीना शुरू कर दें? ये तो ऐसे जीते हैं क्योंकि इनमें अर्थ की तलाश ही नहीं है। तो क्या हमें भी अर्थ की तलाश नहीं करनी चाहिए?  कहने का मतलब साफ था कि जो वर्तमान में जीता है उसके जीने का कोई अर्थ नहीं है, व्यर्थ है उसका जीवन और जो भूत व भविष्य में जीता है उससे तो ख़ुशी का कोई वास्ता नहीं लगता, उसे तो निराश ही जीना पड़ता है क्योंकि ना वो भूत को दुहरा सकता है ना ही भविष्य तक उसकी पहुँच है।

अब सवाल ये था कि मानव के लिए क्या अभीष्ट है: ख़ुशी--जिसके लिए वर्तमान में जीना पड़ता है , या फिर अर्थवत्ता -- जो  भूत और भविष्य का  मुखापेक्षी है। ओशो जैसे तथाकथित बुद्धों ने तो कह दिया, साफ शब्दों में, " अर्थ को खोजो ही मत, अर्थ खोजने जाओगे तो निराशा ही हाथ लगेगी।" उन्होंने तो ये भी कह दिया "मन को गिरा दो, ड्रॉप योर माइंड"। कैसे  कह देते  हैं  ये  लोग  लोगों  से कि  तुम अपनी विशिष्ट अद्भुत क्षमता खो दो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं ; निहित अर्थ हैं उनके। आश्चर्य तो तब होता है जब लोग इसे मान लेते हैं। मन  ही वह विशिष्टता है  जिससे  मनुष्यता और पशुता का विभेद है। मन ही वह क्षमता है जो मनुष्य को वर्तमान से आगे भविष्य तक और पीछे भूत तक ले जाती है । तो फिर क्यों अपनी इस क्षमता का बाध करें, हमें तो इसे संवर्धित और संरक्षित करने का सोचना चाहिए। कुछ  जन तो ऐसे हैं जो अगर भविष्य को स्वीकृत भी कर दें तो वे भूत को हेय ही मानते हैं। उनका विचार है कि चूंकि हम भूत में कोई फेर बदल नहीं कर सकते, भूत के मामले में विवशता है, इसलिए भूत से निजात पा लेना ही बेहतर है। लेकिन, मुझे नीत्शे की बात याद आती है "वृक्ष जमीन के बाहर वही ऊंचाई पा सकता है जितनी जमीन के अंदर उसकी गहराई हो"। ठीक इसी तरह हम उतने ही आगे की सोच सकते है जितना पीछे तक  हमारी सोच गयी हो, उतने भविष्य का भान हो सकता है हमें जितने भूत को हमने जाना हो। तो अगर भविष्य में छलांग मारनी है तो मन को भूत से अवगत होना अपेक्षित है।



मनुष्य में ही अर्थ देने की क्षमता है। और कोई प्राणी किसी चीज को अर्थ नहीं दे सकता, जीवन को भी नहीं। और वे ऐसा इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास भूत और भविष्य से सम्बद्ध होने का कोई साधन नहीं है, जैसा कि मानव के पास है 'मन'। वर्तमान में मस्त रहना उनकी भूत और भविष्य में उतर पाने की असामर्थ्य की वजह से है। उनके वर्तमान में रत होने का महिमामंडन न करें, ये तो उनकी कमी है, पिछड़ापन है।

और, एक बात तो है वर्तमान में जीने वाले खुश चाहे हों या ना हों, लेकिन दुखी नहीं होते। तो इस तरह वर्तमान को जीने में कोई हर्ज नहीं। आख़िरकार मनुष्य भी तो एक प्राणी है इसकी भी तो अपनी गरिमा है। तो क्यों ना हम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को  ही जीकर मानवता को उत्कर्ष दें!


Tuesday, February 12, 2013

'Unexamined life is not worth living.'


       In ancient Greece, Socrates was reputed to hold knowledge in high esteem. One day an acquaintance met the great philosopher and said, “Do you know what I just heard about your
friend?” “Hold on a minute,” Socrates replied. “Before telling me anything I’d like you to pass a little test. It’s called the Triple Filter Test.”
“Triple filter?”
“That’s right,” Socrates continued. “Before you talk to me about my friend, it might be a good idea to take a moment and filter what you’re going to say. That’s why I call it the triple filter test. The first filter is Truth. Have you made
absolutely sure that what you are about to tell me is true?”
“No,” the man said, “Actually I just heard about it and ...”
“All right,” said Socrates. “So you don’t really know if it’s true or not. Now let’s try the second filter, the filter of Goodness. Is what you are about to tell me about my friend something good?”
“No, on the contrary…”
“So,” Socrates continued, “you want to tell me something bad about him, but you’re not certain it’s true. You may still pass the test though, because there’s one filter left: the filter of Usefulness. Is what you want to tell me about my
friend going to be useful to me?”
“No, not really …”
           “Well,” concluded Socrates, “if what you want to tell me is neither true nor good nor even useful, why tell it to me at all?”